भगवान बुद्ध

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।।यज्ञ।।
सुत्त पिटक के दीघनिकाय में यह प्रसंग है। दीघ का अर्थ होता है दीर्घ अर्थात विस्तार। प्रसंग थोड़ा विस्तृत है लेकिन इतना रोचक है कि कथानक की तरह विस्मय बना रहता है और अंत में सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ विधि का ज्ञान हो जाता है।
एक बार भगवान बुद्ध पांच सौ की संख्या वाले विशाल संघ के साथ चारिका करते हुए राजगृह के मगध प्रान्त में ब्राह्मणों की एक बस्ती खानुमत पहुँचे, जहाँ कूटदन्त नाम का एक समृद्ध व प्रतिष्ठित ब्राह्मण रहता था। बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ ने एक आम्रवन को अपना प्रवास बनाया।
ब्राह्मण कूटदन्त के द्वार पर सात सौ बैल, सात सौ बछड़े, सात सौ बछड़ियां, सात सौ बकरियां, सात सौ भेड़ें बन्धी हुई थीं, यानी साढ़े तीन हजार पशु बन्धे थे तथा अपने-अपने स्वर में शोर कर रहे थे।
कूटदन्त ब्राह्मण शीघ्र ही एक महायज्ञ करने वाला था। ये पशुसमूह यज्ञ में बलि देने के लिए लाए गये थे।
खाणुमतवासियों ने सुना कि भगवान बुद्ध हमारे निगम में पधारे हैं, आम्रवन में विहार कर रहे हैं। ऐसे अरहतों का दर्शन करने का महापुण्य होता है, ऐसा सोच कर निगमवासी परिवार समूह के समूह आम्रवन की ओर जाने लगे। अपने आवास की ऊपरी मंजिल पर खड़े कूटदन्त ने ऐसे समूहों को तत्परता से आम्रवन की ओर जाते देख कर अपने अनुचरों से पूछा- ये निगमवासी समूह के समूह आम्रवन की ओर क्यों जा रहे हैं?
अनुचरों ने जाकर मालूम किया, आकर सूचित किया कि अपने निगम में विशाल संघ के साथ भगवान बुद्ध पधारे हैं। वे आम्रवन में विहार कर रहे हैं। ये निगमवासी समूह के समूह भगवान बुद्ध के दर्शन के लिए जा रहे हैं।
ऐसा सुनते ही कूटदन्त ब्राह्मण भी भगवान के दर्शन के लिए तत्पर हो उठा। उसके मन में यह विचार भी आया कि सुना है श्रमग गौतम सोलह परिष्कारों वाला त्रिविध यज्ञ विधान जानते हैं। निकट भविष्य में मैं यज्ञ कराने वाला ही हूँ। क्योंकि न सोलह परिष्कारों वाला त्रिविध यज्ञ विधान भगवान बुद्ध से जान-समझ लूँ…
उसने जा रहे समूहों के पास संदेश भिजवाया कि आप लोग थोड़ी देर ठहरें, तैयार हो लूँ, मैं भी आप सबके साथ चलूँगा…
यह सूचना जैसे ही यज्ञ सम्पादन के लिए पधारे हुए पुरोहितों के कानों में पड़ी कि वे तत्परता से आए और ब्राह्मण कूटदन्त को समझाने लगे:
“श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए आपको नहीं जाना चाहिए, बल्कि उन्हें ही आपके दर्शन करने आना चाहिए। उनके पास जाने से श्रमण गौतम का यश बढ़ेगा, आपका यश घटेगा। आप जैसे ब्राम्हणश्रेष्ठ का सारा लाभ-सत्कार यश-कीर्ति से ही है। आप उनसे आयु में वरिष्ठ भी हैं, सुन्दर, दर्शनीय, शीलवान हैं, आप मंत्रज्ञ हैं, मंत्रों के ज्ञाता हैं, आपके सैकड़ों शिष्य हैं, आप राजा बिम्बिसार के द्वारा सत्कृत हैं, आप मातृपक्ष और पितृपक्ष से सात पीढ़ियों से रक्त शुद्ध और सुजात हैं…”
पुरोहितों की बात सुन कर कूटदन्त ने कहा:
“आप लोग कम से कम मेरा पक्ष भी तो सुन लीजिये, • श्रमण गौतम भी मातृपक्ष और पितृपक्ष से सात पीढ़ियों से रक्त शुद्ध और सुजात हैं, • अनेक मंत्रज्ञ उनके शिष्य हैं, • वे आचार्यों के आचार्य, प्राचार्यों के प्राचार्य हैं, • वे भी राजा बिम्बिसार, प्रसेनजित आदि अनेक राजाओं द्वारा पूजित व सत्कृत हैं, • उन्होंने बड़े कुटुम्ब वाले अपने घर-परिवार का त्याग किया है, विशाल चल-अचल सम्पत्ति और राज्य का त्याग किया है, • बाल काले रहते हुए ही युवावस्था में प्रवज्या ग्रहण की है, • वे सुन्दर, दर्शनीय, शीलवान हैं, • वे कुशल धर्मों के ज्ञाता हैं, • वे आसक्तिक्षीण हैं, • जिज्ञासुगण उनके पास दूर-दूर से आते हैं, • मनुष्य ही नहीं वरन देवता भी उनके शरणागत हैं, • चारों तरफ उनका कीर्तिनाद गूंज रहा है, • वह बत्तीस महापुरुष लक्षणों से युक्त हैं, • वे जिस ग्राम, निगम, जनपद में ठहर जाते हैं वहाँ अमनुष्य सत्ताएं, भूत-प्रेत, भी विघ्नबाधा नहीं पहुँचाते, अनुकूल व सहायक हो जाते हैं, • विशाल भिक्खु संघ उनका अनुगमन करता है, • वह अपनी विद्या, आचरण से जनता में पूजित-मानित हैं, प्रशंसित हैं, • पौष्करसाति ब्राह्मण भार्या व पुत्र-पुत्रियों, परिजनों सहित उनकी उनकी पूजा-वन्दना करते हैं… • वह ही हमारे निगम के आम्रवन में कृपापूर्वक पधारे हैं, फिर हमारे निगम में पधारे होने के कारण वे हमारे अतिथि हैं इस लिए भी उन्हें हमसे मिलने नहीं बल्कि हमें ही उनके दर्शन के लिए जाना चाहिए, अतिथि देवोभवः…
हे सज्जनों, ऐसा मत समझिये कि श्रमण गौतम में इतने ही गुण हैं बल्कि वे अपरिमित गुणों के भण्डार हैं…”
यह आख्यान सुन कर वो यज्ञ प्रायोजक पुरोहितगण एक स्वर में बोले:
“आपने श्रमण गौतम के गुणों का जैसा आख्यान किया है यदि इतने भी गुण उनमें हैं तो हमारे निगम, जनपद से सौ योजन दूर भी वह आएं हों तो वहाँ जा कर भी हमें उनके दर्शन करने चाहिए…”
यूँ श्रद्धापूरित हृदय से समूह के साथ कूटदन्त ब्राह्मण भगवान बुद्ध के दर्शनार्थ आम्रवन पहुँचा। विनय पूर्वक वन्दना करके एक ओर बैठ गया। कुशलक्षेम इत्यादि के औपचारिक संवाद के बाद कूटदन्त ने अपने मन की जिज्ञासा व्यक्त की:
“निकट भविष्य में मैं एक महायज्ञ कराने वाला हूँ। मैंने सुना है कि आप सोलह परिष्कारों वाला त्रिविध यज्ञ विधान जानते हैं, कृपा करके क्या आप सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ विधि बताएंगे जो हमारे लिए हितकारी, सुखकारी हो!”
भगवान ने कहा:
“ब्राम्हण, वह विधि मन लगा कर सुनो। ऐसा ही महायज्ञ करने का विचार एक बार राजा महाविजित के मन में भी आया था। तब उसने भी अपने पुरोहित से ऐसा ही सोलह परिष्कारों वाला त्रिविध यज्ञ विधान पूछा था। उसने पुरोहित को बुला कर अपने मन कि बात कही कि मैंने मनुष्यों के भोगने योग्य अत्यधिक ऐश्वर्य के साधन एकत्रित कर लिए हैं, पृथ्वी का बहुत बड़ा भाग जीत कर अपने अधीन कर लिया है, तो क्यों न अब एक महायज्ञ करूँ जो दीर्घकाल तक मेरे लिए हितकारी तथा सुखकारी हो!”
यह सुनकर राजा के हितचिंतक पुरोहित ने कहा- राजन, यह महायज्ञ करने का अभी उचित मुहूर्त नहीं है। अभी आपका राज्य सकण्टक, सबाधा है। सकण्टक, सबाधा राज्य में ऐसा यज्ञ करने का महान फल नहीं मिलता।
राजा को प्रश्नवाचक भावभंगिमा में देख कर पुरोहित ने समझाया- राज्य में जगह-जगह लूट, चोरी, छीना-झपटी, हिंसा जैसे अपराध होते रहते हैं। जनता ग़रीबी और कर्ज से दबी है। प्रजा में असुरक्षा की भावना है। ऐसे में ऐसा महायज्ञ करेंगे तो प्रजा में आक्रोश होगा कि हम लोग इतने कष्ट में हैं और राजा को यज्ञ करने की पड़ी है। इससे भी यह यज्ञ यश-कीर्ति का नहीं वरन अपयश का कारक बनेगा। आपके मन में यदि ऐसा विचार आ रहा है कि आप अपराधियों को कारावास में डाल कर दण्डित करेंगे, उन्हें मारेंगे, फांसी देंगे, देश निकाला देंगे, राज्य को सकण्टक से निष्कण्टक बनाएंगे, सबाधा से बाधारहित बनाएंगे तो वह भी स्थायी समाधान नहीं होगा। कारावास से मुक्त हो कर अपराधी प्रजा के बीच पहुँच कर पहले से अधिक उत्पात मचाएंगे…जो पकड़े जाने से बचे रहेंगे वे प्रजा को पीड़ित करते ही रहेंगे… बल्कि स्थायी समाधान के लिए आपको करना यह होगा कि अपराधों में लिप्त युवाओं को, बेरोजगारों को रोजगार देना होगा, शिक्षा, कौशल सम्पन्न युवाओं को ससम्मान अच्छे वेतन की नौकरियां देनी होंगी, जो अपना व्यापार-व्यवसाय करने में योग्य नहीं हैं उन्हें योग्य बनाना होगा, उन्हें विशेष राजकीय सहायता, अनुदान देकर व्यवसाय, व्यापार में लगाना होगा, कृषि योग्य भूमि, बीज, बैल आदि प्रदान कर प्रजा को आजीविका देनी होगी, व्यवसाय, व्यापार के लिए विशेष राजकीय संरक्षण देना होगा ताकि अन्य राज्यों के प्रतिभाशाली विद्वान, कौशल सम्पन्न भी आपके राज्य आकर रहना तथा व्यवसाय, व्यापार करना चाहें, इससे आपके खज़ाने में प्रभूत मात्रा में कर आएगा, राजकोष बढ़ेगा, राज्य समृद्ध होगा, राज्य अपराधमुक्त होगा, प्रजा ऋणमुक्त होगी, घरों में ताले नहीं लगे होंगे, घर-गृहस्थी के लोग अपने बच्चों को गोदी में उछालते हुए सुखपूर्वक हंसी-खुशी रहेंगे, तब आपका राज्य निष्कण्टक, बाधारहित कहा जाएगा। तब महायज्ञ करने का महान फल होगा…”
पुरोहित के बताए विधान के अनुसार अनुपालन करने से कुछ ही बरसों में राज्य अपराधमुक्त हो गया, राजकोष स्वर्ण मुद्राओं से भर गया, अन्नागार अन्न-धान्य से भर गये, प्रजा कर्ज से मुक्त हो गयी, घरों में ताले नहीं लगते थे, घर गृहस्थी के लोग बच्चों को गोदी में उछाल-उछाल कर हंसी-खुशी, नाचते-गाते रहने लगे…
तब एक दिन पुनः राजा ने अपने पुरोहित को याद किया।
प्रसंगवशात मुझे याद आ गया कि एक बार बामसेफ के एक अधिवेशन में मुझे आमंत्रित किया गया। बड़े आग्रहपूर्वक कई महीने पहले मुझसे समय लिया गया था। मुझे शामिल होने का अवसर मिला। मेरे प्रबोधन के पहले मंच पर रिजर्वेशन, आरक्षण, को लेकर व्याख्यान चल रहा था। व्याख्याकार छत्रपति शाहूजी महाराज द्वारा आधुनिक भारत में पहली बार अपने राज्य में प्राविधानित किये गये आरक्षण के विधान से लेकर वर्तमान समय में संविधान में आरक्षण के प्राविधान तक की यात्रा को क्रम से आइडिया ऑफ रिजर्वेशन, इक्जीक्यूशन ऑफ रिजर्वेशन, इम्पलीमेन्टेशन ऑफ रिजर्वेशन शीर्षकों के अन्तर्गत सविस्तार तथा क्रम से समझा रहे थे, तिथियों सहित बिल्कुल सटीक तथ्यों के साथ…
जब प्रबोधन के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया गया तो मैंने पूर्व व्याख्यान के विषय की डोरी पकड़ कर कहना शुरू किया कि अभी आप लोग आइडिया ऑफ रिजर्वेशन, इक्जीक्यूशन ऑफ रिजर्वेशन, इम्पलीमेन्टेशन ऑफ रिजर्वेशन के बारे में सविस्तार, सक्रम सुन रहे थे, उसी श्रंखला में मैं आपको सिर्फ ओरिजिन ऑफ रिजर्वेशन बताना चाहूँगा, कि आरक्षण की अवधारणा की उत्पत्ति कहाँ से है!
यह भूमिका बना कर मैंने दीघनिकाय के इसी कूटदन्त सुत्त की पृष्ठभूमि में अपना व्याख्यान दिया तथा प्रतिपादित किया कि आरक्षण, अनुदान, संरक्षण उन जाति, समुदायों पर राज्य का अहसान नहीं है जिन्हें आरक्षण प्रदान कर राष्ट्र की मुख्य धारा में लाया जा रहा है बल्कि यह राष्ट्र का स्वयं पर अहसान है। अपने ही पश्चाताप को अभिव्यक्त करने का लोकहितकारी उपाय है। यह राष्ट्र की समृद्धि, राजकोष वृद्धि, अपराधमुक्ति, उत्पादनवृद्धि आदि में सहायक है। और यह उपाय भगवान बुद्ध के द्वारा बताया गया है, ये बुद्ध वचन हैं। बुद्ध वचन हमेशा ही बहुजनहिताय हैं, लोकहिताय हैं, तो राष्टहिताय क्यों नहीं होंगे! बोधिसत्व बाबा साहेब ने बुद्ध धम्म से प्रेरित हो कर ही छुआ-छूत के कारण राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग समुदायों को आरक्षण के द्वारा मुख्य धारा में लाने का उपाय दिया था। और आज़ादी के बाद आरक्षणलाभी समुदायों ने राष्ट्र को समृद्ध किया है, समाज में अपना सकारात्मक योगदान दिया है…
मेरा प्रबोधन समाप्त होते ही बड़ी देर तक सभागार में तालियाँ बजती रहीं कि उनको आरक्षण के समर्थन में बुद्ध वचनों का बल मिल गया।
अस्तु, राजकीय अनुदान इत्यादि के द्वारा राज्य के युवाओं को रोजगार, व्यवसाय, व्यापार में संलग्न कर राजा महाविजित शीघ्र ही एक प्रतापी तथा विपुल सम्पत्ति वाला राजा हो गया। राज्य सकण्टक से निष्कण्टक हो गया, सबाधा से बाधारहित हो गया, राज्य अपराधमुक्त हो गया, राजकोष स्वर्ण मुद्राओं से भर गया, अन्नागार अन्न-धान्य से भर गये, प्रजा कर्ज से मुक्त हो गयी, घरों में ताले नहीं लगते थे, घर गृहस्थी के लोग बच्चों को गोदी में उछाल-उछाल कर हंसी-खुशी, नाचते-गाते रहने लगे…
तब एक दिन पुनः राजा ने अपने पुरोहित को याद किया और अपने मन का विचार व्यक्त किया कि मैंने मनुष्यों के भोगने योग्य अत्यधिक ऐश्वर्य के साधन एकत्रित कर लिए हैं, पृथ्वी का बहुत बड़ा भाग जीत कर अपने अधीन कर लिया है, राज्य अब निष्कण्टक हो गया है, बाधारहित हो गया है, तो क्यों न अब वह महायज्ञ करूँ जो दीर्घकाल तक मेरे लिए हितकारी तथा सुखकारी हो!
तब पुरोहित ने राजा का अनुमोदन किया कि वह महायज्ञ करने का अब उचित समय है। फ़िर यज्ञ के सोलह परिष्कार बताए तथा तीन विधाएं बतायीं।
इस महायज्ञ में चार अनुमति पक्ष होते हैं कि आप
1. अपने अधीन समस्त उपराजाओं से अनुमति लें
2. अपने अधीन समस्त आमात्यों, शासन परिषद के सदस्यों से अनुमति लें
3. अपने राज्य के समस्त पुरोहितों से अनुमति लें
4. अपने राज्य समस्त धनपतियों, नगर सेठों से अनुमति लें
आपके मन में विचार आ सकता है कि महायज्ञ करना मुझे है तो किसी से अनुमति लेने की क्या आवश्यकता है! बस आमंत्रित करना पर्याप्त होगा। लेकिन राजन, जब आप अपने अधीन उपराजाओं से अनुमति लेंगे कि इस प्रकार के एक महायज्ञ करने का विचार मन में आया है, आपकी अनुमति चाहता हूँ, तो वे सहर्ष आपका अनुमोदन करेंगे कि स्वयं समर्थ, सक्षम होते हुए भी राजा ने हमसे अनुमति ली है तो कोई भी ईर्ष्या नहीं करेगा, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विघ्नबाधा उत्पन्न नहीं करेगा बल्कि बिन मांगे भी वांछित सहयोग देंगे।
पुरोहित के बताए विधान के अनुसार राजा महाविजित ने अपने अधीन उपराजाओं, आमात्यों, पुरोहितों तथा नगर सेठों से अनुमति ली। यज्ञ शुरू होने के पहले ही चारों तरफ राजा की प्रशंसा होने लगी और सभी लोग अपनी-अपनी तरह से यज्ञ में योगदान देने की बिना कहे ही योजना बनाने लगे।
पुरोहित ने बताया कि ऐसे महायज्ञ में राजा के आठ अंग अर्थात गुण होते हैं:
1. उभय पक्ष से सात पीढियों से शुद्ध रक्त, सुजात 2. दर्शनीय, सुन्दर, मनोहर, अभंग, स्वस्थ शरीर 3. शीलवान 4. अगाध सम्पत्ति से युक्त 5. बलवान चतुरंङ्गिणी सेना से युक्त 6. धम्म में श्रद्धालु, दानी, भिक्खुओं के लिए द्वार हमेशा खुले रखने वाला, पुण्यकर्ता 7. बहुश्रुत, अनेक शास्त्रों का ज्ञाता, प्रश्नों का उचित उत्तर देने वाला, ज्ञानी, यथारूप बोलने, समझने वाला 8. भूत, भविष्य, वर्तमान की बातों को समझने वाला, जानने वाला
राजन! आप इन गुणों से सम्पन्न हैं ही। सोलह परिष्कारों वाले इस यज्ञ विधान में यज्ञ सम्पादन करने वाले पुरोहित के भी चार गुण होते हैं:
1. उभय पक्ष से सात पीढियों से शुद्ध रक्त, सुजात 2. शास्त्रज्ञ, मंत्रज्ञ, महापुरुष लक्षणों का ज्ञाता 3. शीलवान 4. यज्ञविधि का परिपूर्ण जानकार, यज्ञकर्ताओं में प्रथम अथवा द्वितीय स्थान रखने वाला
इस प्रकार ये सोलह परिष्कार हुए- चार अनुमति पक्ष, राजा के आठ गुण, पुरोहित के चार गुण, कुल सोलह परिष्कार हो गये। इसी प्रकार तीन विधाएं अर्थात चिन्ताएं हैं:
1. यज्ञ शुरू करने से पहले यज्ञ के खर्चे की चिन्ता 2. यज्ञ होने के दौरान खर्च का क्लेश व चिन्ता 3. यज्ञ सम्पन्न हो चुकने के बाद खर्च का पश्चाताप
राजन, आपको इससे भी मुक्त होना होगा अन्यथा यज्ञ फलदायी नहीं होगा। यज्ञ शुरू करने से पहले यज्ञ के खर्चे की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, यज्ञ होने के दौरान हो रहे खर्च का क्लेश व चिन्ता नहीं करना चाहिए तथा यज्ञ सम्पन्न हो चुकने के बाद हो गये खर्च का पश्चाताप नहीं करना चाहिए।
फिर पुरोहित ने इस प्रकार की चिन्ता व क्लेश को मन से दूर करने के दस उपाय बताए:
1. यज्ञ में दान वितरण के समय अहिंसक व्रतधारियों के साथ कुछ हिंसक भी आ सकते हैं तो भी आपको अपने मन को प्रसन्न रखना है कि हिंसक दान ले जा रहे हैं तो ले जाएं, उनकी हिंसा उनके लिए, मुझे इससे क्या, हमारे यज्ञ का आश्रय तो ये अहिंसकजन हैं, अहिंसकों के दान का फल तो है ही, यूँ अपने मन को प्रमुदित रखिये;
2. यज्ञ में दान वितरण के समय दान व्रतधारियों के साथ कुछ चोर भी आ सकते हैं तो भी आपको अपने मन को प्रसन्न रखना है कि चोर भी दान ले जा रहे हैं तो ले जाएं, उनका चौरकर्म उनके लिए, मुझे इससे क्या, हमारे यज्ञ का आश्रय तो ये दानीजन हैं, दानीजनों के दान का फल तो है ही, यूँ अपने मन को प्रमुदित रखिये;
3. यज्ञ में व्यभिचारी और शीलवान भी आएंगे… 4. असत्यभाषी तथा सत्यभाषी भी आएंगे… 5. चुगलखोर तथा चुगलखोरी न करने वाले भी… 6. कठोरभाषी तथा मृदुभाषी भी… 7. लोभी तथा निर्लोभी भी… 8. द्वेषी तथा मैत्री चित्त वाले भी… 9. मिथ्यादृष्टि… 10. सम्यक दृष्टि…
इस प्रकार पुरोहित ने याचकों को दिये जाने वाले दान के समय मन में उठने वाली दुर्भावनाओं से राजा को पहले ही सचेत कर दिया ताकि यज्ञ के समय मन में विघ्न न आए।
यज्ञ के दौरान मन को सतत प्रसन्न बनाए रखने के भी सोलह उपाय पुरोहित ने बताए:
1. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई अधीनस्थ राजा यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ कर रहे हैं लेकिन मुझे तो आमंत्रित ही नहीं किया तो अब ऐसा कहने वाला भी कोई नहीं रहा बल्कि आपने उनसे अनुमति भी ली हुई है;
2. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई अधीनस्थ आमात्य यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ कर रहे हैं लेकिन मुझे तो आमंत्रित ही नहीं किया तो अब ऐसा कहने वाला भी कोई नहीं रहा बल्कि आपने उनसे अनुमति भी ली हुई है;
3. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई पुरोहित यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ कर रहे हैं लेकिन मुझे तो आमंत्रित ही नहीं किया तो अब ऐसा कहने वाला भी कोई नहीं रहा बल्कि आपने उनसे अनुमति भी ली हुई है;
4. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई धनपति, नगर सेठ यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ कर रहे हैं लेकिन मुझे तो आमंत्रित ही नहीं किया तो अब ऐसा कहने वाला भी कोई नहीं रहा बल्कि आपने उनसे अनुमति भी ली हुई है;
5. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन उभय पक्ष से शुद्ध रक्त तथा सुजात नहीं हैं, तो अब ऐसी बात भी नहीं है, आप राजन उभय पक्षों से शुद्ध रक्त तथा सुजात हैं;
6. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन वह सुन्दर व मनोहर नहीं हैं, तो अब ऐसी बात भी नहीं है, आप सुन्दर व मनोहर हैं;
7. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन राजकोष खाली हैं, अन्नागार खाली हैं, तो अब ऐसी बात भी नहीं है, राजकोष विपुल धन से भरा हुआ है, अन्नागार भी भरे हुए हैं;
8. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन शीलवान नहीं हैं, तो अब ऐसी बात भी नहीं है, आप शीलों के पालनकर्ता हैं;
9. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन उनके पास सेना तो छोटी-सी है, तो अब ऐसी बात भी नहीं है, आपके पास विशाल बलवान चतुरंङ्गिणी सेना है;
10. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन श्रद्धालु दायक नहीं हैं, दान देने में अग्रणी नहीं हैं, तो अब ऐसी बात भी नहीं है, आप दान देने में भी अग्रणी हैं;
11. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन स्वयं शास्त्रज्ञ नहीं हैं, तो ऐसी बात भी नहीं है, आप बहुश्रुत और शास्त्रज्ञ हैं;
12. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन स्वयं मेधावी और विद्वान नहीं हैं, तो ऐसी बात भी नहीं है, आप मेधावी और विद्वान हैं;
13. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन उनका पुरोहित उभय पक्ष से रक्त शुद्ध, सुजात नहीं हैं, तो ऐसी बात भी नहीं है, आप का पुरोहित उभय पक्ष से रक्त शुद्ध, सुजात है;
14. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन उनका पुरोहित शास्त्रज्ञ, मंत्रज्ञ नहीं हैं, तो ऐसी बात भी नहीं है, आप का पुरोहित शास्त्रज्ञ व मंत्रज्ञ है;
15. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन उनका पुरोहित शीलवान नहीं हैं, तो ऐसी बात भी नहीं है, आप का पुरोहित शीलवान है;
16. सम्भवतः यज्ञ करते समय कोई यह कहना चाहे कि राजा महाविजित इतना विशाल यज्ञ तो कर रहे हैं लेकिन उनका पुरोहित पण्डित, मेधावी, प्राथमिक नहीं हैं, तो ऐसी बात भी नहीं है, आप का पुरोहित पण्डित, मेधावी, प्राथमिक है;
इस प्रकार राजा महाविजित को सम्पूर्ण सोलह परिष्कारों तथा त्रिविध विधानों से सुपरिचित करा कर पुरोहित ने बिना पशुओं की बलि के सिर्फ घृत, तैल, नवनीत, मधु, खाण्ड से वह महायज्ञ सम्पन्न कराया।
उस महायज्ञ में राजा महाविजित को देने के लिए समस्त उपराजा, समस्त आमात्यगण, समस्त पुरोहितगण तथा समस्त धनश्रेष्ठि एवं नगर सेठ महंगे विपुल उपहार, धनादि लेकर आए। राजा महाविजित ने विनम्रता से वह सारे उपहार यह कह कर वापस कर दिये कि कोई कमी नहीं है, मान लीजिये कि आपके उपहार मैंने स्वीकार कर लिये, अब इसे हमारा दिया उपहार समझ कर वापस लें जाएँ…
लाए हुए उपहार वापस क्या ले जाना! यह सोच-विचार कर चारों परिषदों ने चारों दिशाओं के एक-एक द्वार का दायित्व ले लिया तथा यज्ञ सम्पन्न हो चुकने के बाद वापस जा रहे हर आगंतुक को कुछ न कुछ दान, उपहार देना शुरू कर दिया। पूर्वी द्वार उपराजाओं ने सम्भाला, दक्षिणी द्वार आमात्यगणों ने, पुरोहितों ने पश्चिमी द्वार पर दान देना शुरू किया और उत्तरी द्वार पर नगर सेठों तथा वणिकों ने दान की कतार लगा दी। एक भी आगंतुक ऐसा नहीं रहा जिसे कोई उपहार अथवा दान न मिला हो। दान का ऐसा उत्सव पहले कभी नहीं देखा गया था…
इस विशाल महायज्ञ में न बकरी कटी, न भेडें, न गायें, न बछड़े आदि। कोई हिंसा नहीं हुई, न यज्ञ स्तम्भ बनाने के लिए पेड़ काटे गये, अनुचर-परिचर सहर्ष सम्मिलित थे, न कि भय से अथवा आदेश के कारण। सिर्फ घी, तैल, मक्खन, शहद, खाण्ड से सोलह परिष्कारों वाला वह त्रिविध महायज्ञ सम्पादित हुआ जिससे राजा महाविजित अपार यशस्वी हुआ, सर्वत्र उसकी कीर्ति, प्रशंसा होने लगी…
यह सारा प्रसंग सविस्तार सुनकर कूटदन्त ब्राह्मण के साथ बैठे सारे ब्राम्हण तथा यज्ञ सम्पादन के लिए पधारे पुरोहितगण भी साधु साधु साधु का घोष करने लगे। लेकिन कूटदन्त शान्त रहा, मौन रहा। तब शेष ब्राम्हणों ने कहा- हे कूटदन्त, आप भगवान के सुभाषित कथानक का साधुवाद किस कारण नहीं कर रहे हैं?
कूटदन्त ब्राह्मण ने कहा- भगवान के सुभाषित का अनुमोदन न करूँ तो मेरा सिर ही धड़ से अलग हो जाए! मैं सिर्फ एक विचार कर रहा हूँ कि पूरे कथानक में भगवान ने एक बार भी यह नहीं कहा, “ऐसा मैंने सुना है” अथवा “ऐसा भी होता है” बल्कि अपने समग्र सुभाषित में भगवान बार-बार यही कहते रहे “उस समय ऐसा था”, “उस समय ऐसा था”। यह सुनकर मैं अनुमान लगा रहा हूँ कि भगवान जिस काल का कथानक सुना रहे हैं उस समय या तो राजा महाविजित भगवान स्वयं थे अथवा यज्ञ सम्पादित कराने वाले पुरोहित थे। वास्तविकता तो भगवान ही बताएंगे और यह भी कि इतने महान यज्ञ को करने और कराने वाले के फल की गति क्या होती है, देहपात के बाद वह देवलोक में उत्पन्न होता है कि नहीं?
भगवान ने कूटदन्त से कहा:
“ब्राह्मण, वह यज्ञ सम्पादित कराने वाला पुरोहित मैं ही था। ऐसे महान यज्ञकर्ताओं को मरणान्तर सुगति प्राप्त होती है, देवलोक को गमन करता है।”
कूटदन्त ने लोकहित की भावना से पुनः पूछा:
“भगवान, क्या सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला कोई और भी यज्ञ है?”
भगवान ने कहा:
“हाँ, ब्राह्मण, सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला भी यज्ञ है?”
“हे गौतम, सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ कौन-सा है? उसका विधि-विधान क्या है?”
नित्य दान यज्ञ
1. “हे ब्राह्मण, शीलवान प्रवज्जितों को, भिक्खुओं, भिक्खुनियों को, नित्य किये जाने वाला दान सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ से बढ़ कर फलदायी है, बड़े माहात्म्य वाला है।”
“हे गौतम, वह कैसे? किस हेतु, किस प्रत्यय से शीलवान भिक्खुओं को दिये जाने वाला नित्य दान सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध विशाल यज्ञ से अधिक फलदायी और माहात्म्य वाला है?”
“हे ब्राह्मण, विराट जनसमूह वाले उन विशाल यज्ञों में अरहत मार्गारूढ़ तथा अरहत पुद्गल सम्मिलित नहीं हुआ करते क्योंकि भीड़ में धक्का-मुक्की होती है, भीड़ अनुशासन को बनाए रखने के लिए सुरक्षाकर्मियों को कभी लाठी भी चलानी पड़ती है। ऐसे जनांकीर्ण आयोजनों में अवमानना से बचने के लिए अरहत शामिल नहीं होते लेकिन नित्य दान में कभी-कभी अरहत मार्गारूढ़ तथा अरहत पुद्गल भी पधार जाते हैं। अरहतों को दिया दान सोलह परिष्कारों वाले यज्ञ से अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला होता है। इसलिए शीलवान प्रवज्जितों के हेतु से किये जाने वाला दानयज्ञ सोलह परिष्कारों वाले यज्ञ से बढ़ कर फलदायी और माहात्म्य वाला है।”
“हे गौतम, सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ तथा शीलवान प्रवज्जितों को दिये जाने जाने वाले नित्य दान यज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ कोई है?”
“हाँ, ब्राह्मण, सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ तथा शीलवान प्रवज्जितों को दिये जाने जाने वाले नित्य दान यज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला भी यज्ञ है?”
“हे गौतम, सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ तथा शीलवान प्रवज्जितों को दिये जाने जाने वाले नित्य दान यज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ कौन-सा है? उसका विधि-विधान क्या है?”
विहार दान यज्ञ
2. “हे ब्राह्मण, सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ तथा शीलवान प्रवज्जितों को दिये जाने जाने वाले नित्य दानयज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ है भिक्खु संघ के लिए निर्मित करके विहार दान करना। चारों दिशाओं से आने वाले भिक्खु संघ के ठहरने, ध्यान-साधना करने के लिए विहार दान करना सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ तथा शीलवान प्रवज्जितों को दिये जाने जाने वाले नित्य दानयज्ञ से भी कम सामग्री वाला, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ है।”
“भगवान, क्या कोई और भी यज्ञ पूर्व की तीनों विधियों से कम खर्च, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला है?”
“हे ब्राह्मण, पूर्व की तीनों विधियों से कम खर्च, कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ भी है।”
“हे गौतम, कृपया वह कौन-सा यज्ञ है?”
शरणगमन यज्ञ
3. “हे ब्राह्मण, जब कोई श्रद्धालु निब्बान की अभिलाषा से प्रसन्न मन से त्रिरत्नों की शरण जाता है, बुद्धं सरणं गच्छामि कहता है, धम्मं सरणं गच्छामि कहता है, संघं सरणं गच्छामि का घोष करता है, तो यह त्रिरत्नों को किया गया शरणगमन सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ, शीलवान प्रवज्जितों को दिये जाने जाने वाले नित्य दानयज्ञ तथा चारों दिशाओं से आने वाले भिक्खु संघ के ठहरने, ध्यान-साधना आदि के लिए निर्मित कर दिये गये विहार दान यज्ञ से भी कम सामग्री वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यह यज्ञ है।”
“हे गौतम, क्या पूर्व में बताए गये चार यज्ञों से भी कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला कोई यज्ञ है?”
शीलयज्ञ
4. “हे ब्राह्मण, जो पंचशीलों का व्रत धारण करता है वह शीलयज्ञ पूर्व के समस्त यज्ञों से भी कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला है।
पांच शील:
पाणातिपातावेरमणि सिक्खापदंसमादयामि अदिन्नदाना वेरमणि सिक्खापदंसमादयामि कामेसुमिच्छाचारावेरमणि सिक्खापदंसमादयामि मूसावादावेरमणि सिक्खापदंसमादयामि सुरामेरयमज्ज पमादाट्ठाना वेरमणि सिक्खापदं समादयामि
• प्राणी हिंसा से विरत रहना • अदत्तादान चोरी से विरत रहना • काम व्यभिचार से विरत रहना • मिथ्या भाषण से विरत रहना • समस्त मादक पदार्थों के सेवन से विरत रहना
“हे गौतम, क्या कोई और भी यज्ञ है जो पूर्व बताए गये यज्ञों से कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला हो?”
“हाँ, ब्राह्मण! इससे भी कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ भी है।”
“हे गौतम, कृपया वह कौन-सा यज्ञ है?”
ध्यान यज्ञ
5. “ब्राह्मण, वह है ध्यानयज्ञ।”
“हे गौतम, यह ध्यान यज्ञ कैसे होता है?”
“ब्राह्मण, सवितर्क, सविचार, सविवेक प्रथम ध्यान है। यह ध्यानयज्ञ पूर्व वर्णित समस्त यज्ञों से श्रेष्ठतर है। कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला है।
“वितर्क, विचाररहित प्रीति सुख वाला द्वितीय ध्यान, पूर्व के ध्यान यज्ञ से अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ है।
“प्रीति सुख तथा वैराग्य से उपराम हो सति साधना करता हुआ समाधिलीन हो, सुखविहारी हो तृतीय ध्यान को उपलब्ध होता है; बिना प्रीति का सुखविहारी ध्यान की अवस्था, रोम-रोम, अंग-प्रत्यंग प्रीति रहित सुख से भीगा हुआ, पूर्व के ध्यान से उच्चतर यज्ञ है।
“सुख-दुःख का प्रहाण कर सति और उपेक्खा का आश्रय लेकर चतुर्थ ध्यान की अवस्था प्राप्त करता है, रोम-रोम, अंग-प्रत्यंग निर्मल हो जाता है, प्रथम तीन ध्यानों की अवस्थाओं का भी अतिक्रमण करते हुए निर्मल चित्त हो चतुर्थ ध्यान में विहार करता है, यह पूर्व के समस्त यज्ञों से भी बढ़कर यज्ञ है, अधिक फलदायी है।”
“हे गौतम, क्या इससे भी उच्चतर तथा अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ होता है?”
समाधि यज्ञ
“हाँ, ब्राह्मण, इससे भी उच्चतर तथा अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ है समाधि यज्ञ।
“शील सीमा के चारों ध्यानों में सुअभ्यस्त होकर समाधि को प्राप्त करना, यह पूर्व के समस्त यज्ञों से श्रेष्ठतर तथा कम क्रियाकलापों वाला लेकिन अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ है।”
“हे गौतम, क्या इससे भी उच्चतर तथा अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ है?”
“हे ब्राह्मण, इससे भी अधिक फलदायी व माहात्म्य वाला यज्ञ है प्रज्ञायज्ञ। जो प्रज्ञा प्राप्त कर लेता है उसके लिये अब कुछ करणीय नहीं रहता। यह सर्वोच्च यज्ञ है। जिसके लिए सारी साधनाएं हैं वह यह यज्ञ है। निब्बान इसका फल है।
इस संवाद में भगवान बुद्ध ने कर्मकाण्डीय यज्ञ की सारी अवधारणाएं ध्वस्त कर के रख दीं। दान, शरणगमन, शील, ध्यान, समाधि, प्रज्ञा यज्ञों का इतना सहज व सूक्ष्म निरूपण किया है कि न स्वीकार करने का कोई कारण नहीं छूटता है। बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि, ये शरणगमन भी यज्ञ है। लेकिन ब्राह्मण कूटदन्त वास्तव मे स्वयं भी महाज्ञानी था और लोकहितभावी था। वह जानता था कि यज्ञ का इतना विराट आयोजन हर कोई नहीं कर सकता। इसलिए अल्पायु सामग्री तथा अल्प क्रियाकलापों वाले यज्ञ को वह क्रम से पूछता जा रहा था। वह इतने पर ही ठहरा नहीं। उसने फिर भी पूछा- क्या इससे भी उच्चतर और कोई यज्ञ है?
स्वाभाविक है कि संसार का हर व्यक्ति बुद्ध, धम्म, संघ को समर्पित नहीं हो सकता। हर किसी को भगवान बुद्ध के प्रति समर्पित होने के लिए राजी नहीं किया जा सकता। प्रायः शरणगमन में व्यक्ति की व्यक्तिगत आस्थाएं आड़े आती हैं। भगवान शीलों के पालन को शरणगमन से भी उच्चतर यज्ञ बताते हैं। शीलपालन से उच्चतर आयाम ध्यान साधना है। शील व ध्यान से अधिक पंथनिरपेक्ष, सेकुलर, तथा सार्वभौमिक मार्ग नहीं हो सकता। आज पूरी दुनिया को इसी की ज़रूरत है और इसी रूप में बुद्ध का धम्म लोगों में परिचित, इंट्रोड्यूस, करने की ज़रूरत है।
बहुविध यज्ञ विधान जानकर श्रद्धालु ब्राह्मण कूटदन्त ने भावविभोर हो कर हर्षित कण्ठ से कहा- आश्चर्य है गौतम, अद्भुत है गौतम! जैसे अन्धे को आँख दे दे, जैसे औंधे को सीधा कर दे, जैसे भटके को राह दिखा दे, जैसे अन्धेरे में प्रदीप जला दे, ऐसे आप गौतम ने विविध उपाय से धम्म प्रकाशित किया है। कृपया आज से यावत्जीवन आप हमें अपना उपासक स्वीकार करें। आज से मैं बुद्ध की शरणागत हूँ, आपके धम्म की शरणागत हूँ, आपके संघ की शरणागत हूँ, आज इसी समय यज्ञ निमित्त मेरे घर पर बन्धे सात सौ बैल, सात सौ बछड़े, सात सौ बछड़ियों, सात सौ भेड़ें, सात सौ बकरियों को भी मुक्त करता हूँ, वे घास खाएं, पानी पियें, ठण्डी हवा का आनन्द लें…
कूटदन्त ब्राह्मण ने भगवान के सम्मुख विनय भाव से नमन करते हुए अगले दिन के भोजनदान के लिए संघ सहित आमंत्रित किया। भगवान ने मौन रह कर स्वीकृति दी। धम्म सभा में बैठे-बैठे ही कूटदन्त स्रोतापत्ति फल को उपलब्ध हो गया।
अगले दिन बुद्ध प्रमुख भिक्खु संघ को भोजनदान देकर कूटदन्त ने समस्त यज्ञों का फल पा लिया। भगवान से जो उपदेश सुना उसका अनुपालन भी किया और। शेष जीवन त्रिरत्नों का होकर रहा।
हमारे मध्यकाल के संतों ने भी बुद्ध वचनों का अनुगमन किया है और अपनी भाषा में भगवान के वचन दोहराए हैं:
संत मिलन को जाइये तज माया अभिमान ज्यों-ज्यों पग आगे धरे कोटि यज्ञ समान



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